भारत में उष्णकटिबंधीय मानसूनी जलवायु पायी जाती है। भारतीय जलवायु में दो मुख्य विशेषताएँ हैं –
1. उष्णकटिबंधीय
2. मानसूनी
इन दोनों विशेषताओं का भारतीय मानसून पर विशेष प्रभाव पड़ता है। भारतीय जलवायु को समझने के लिए इन दोनों विशेषताओं को समझना आवश्यक है। आइये इन दशाओं (Conditions) का विस्तृत अध्ययन करें-
1. उष्णकटिबंधीय जलवायु
- विषुवत रेखा पर सूर्य का प्रकाश वर्ष भर लंबवत एवं सबसे अधिक पड़ता है। 23.5″ उत्तरी अक्षांश को कर्क रेखा एवं 23.5° दक्षिणी अक्षांश को मकर रेखा कहा जाता है। सूर्य का लंबवत प्रकाश वर्षभर इसी क्षेत्र (कर्क रेखा एवं मकर रेखा) के बीच विचलन करता है।
- कर्क रेखा एवं मकर रेखा के बीच का यही भाग साल भर सबसे अधिक गरम रहता है, तथा इस क्षेत्र में उष्णकटिबंधीय जलवायु पापी जाती है। से दक्षिण में पड़ने कर्क रेखा भारत के बीचों बीच से होकर गुजरती है। अतः कर्क रेखा हाता भारतीय क्षेत्र उष्णकटिबंधीय जलवायु के अंतर्गत आता है। नियमतः कर्क एवं मकर रेखा एक जलवायु विभाजक की भूमिका निभाती है।
- अर्थातकर्क एवं मकर रेखा के बीच का भाग उष्णकटिबंधीय एवं क्रमशः कर्क तथा मकर रेखा के उत्तरी एवं दक्षिणी भाग शीतोष्ण कटिबंधीय होते है, परन्तु भारतीय उपमहाद्वीप में पह नियम पूरी तरह लागू नहीं हो पाता तथा भारतीय उपमहाद्वीप में कर्क रेखा जलवायु विभाजक की भूमिका नहीं निभा पाती है। इसके दो प्रमुख कारण यह हैं कि-
- भारत के उत्तर में स्थित हिमालय पर्वत साइबेरिया से आने वाली शीत हवाओं को भारत में प्रवेश नहीं करने देता। जिस कारण भारत में कर्क रेखा से ऊपर वाला भाग शीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्र होने के बाद भी शीत ऋतु के मौसम में साइबेरिया जैसे अन्य शीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों से कम ठंड़ा होता है।
- हिमालय पर्वत हिंद महासागर से आने वाली आद्र हवाओं को रोक कर वर्षा करवाता है, जिस कारण कर्क रेखा के उत्तर में स्थित दिल्ली तक वर्षा होती है।
2. मानसूनी जलवायु
मानसून एक अरबी शब्द है, तथा इसका अर्थ है मौसम परिवर्तन के साथ हवाओं की दिशा में विपरीत परिवर्तन ।
भारत में मुख्यतः दो प्रकार की मानसूनी हवाएँ प्रवाहित होती हैं-
उत्तर-पूर्वी मानसून
- जो हवाएँ शीत ऋतु में उत्तर-पूर्व से बहकर भारत में प्रवाहित होती हैं उन्हें उत्तर पूर्वी हवाएँ कहा जाता है।
- उत्तर-पूर्वी मानसून भारत में केवल शीत ऋतु में ही प्रवाहित होता है।
- मुख्य रूप से ये मानसून स्थलखण्ड के ऊपर से प्रवाहित होकर भारत में प्रवेश करता है, जिस कारण ये अधिकांश भारत में वर्षा करने में सक्षम नहीं है। परन्तु अपवाद स्वरूप इस मानसून का वह भाग जो बंगाल की खाड़ी के ऊपर से प्रवाहित होता है। वहां से
- पर्याप्त मात्रा में नमी ग्रहण कर लेता है एवं तमिलनाडु के पूर्वी घाट से टकराकर वहां वर्षा करता है। इसी कारण तमिलनाडु के कोरोमण्डल तट पर शीत ऋतु में वर्षा होती है।
दक्षिण-पश्चिम मानसून
- भारत में ग्रीष्म ऋतु में हिंद महासागर से दक्षिण-पश्चिम दिशा से प्रवेश करती है।
- भारत में होने वाली कुल वर्षा में से 90% वर्षा इसी मानसून के कारण होती है।
निष्कर्ष अतः यह सिद्ध होता है कि भारत में उष्णकटिबंधीय एवं मानसूनी दोनों प्रकार की जलवायु पायी जाती है। उष्णकटिबंधीय जलवायु इसलिए क्योंकि यहां कर्क रेखा के उत्तर में हिमालय पर्वत तक उष्णकटिबंधीय दशाए (condition) रहती हैं। मानसूनी जलवायु इसलिए क्योंकि भारत में ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ हवाओं कि दिशा में स्पष्ट परिवर्तन देखा जा सकता है, ग्रीष्म ऋतु में दक्षिण-पश्चिम मानसून तथा शीत ऋतु में उत्तर-पूर्वी मानसून।
ग्रीष्म ऋतु में मौसम की क्रिया विधि
भारत में मानसून का सर्वाधिक भाग लगभग १०% दक्षिण-पश्चिम मानसून से प्राप्त होता है जोकि भारत में जून माह में भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश करता है। दक्षिण-पश्चिम मानसून की पूरी क्रियाविधि को समझने के लिए मार्च से जून तक के मौसम को समझना आवश्यक है। 21 मार्च को सूर्य विद्युतत रेखा पर लम्बवत् चमकता है। उसके बाद धीरे-धीरे उत्तरायण होने लगता है तथा 21 जून तक कर्क रेखा के ऊपर पहुंच जाता है। इसके साथ साथ ITCZ (Inter Tropical Conversion Zone, अंतः उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र) भी उत्तर की तरफ खिसकने लगता है, जिससे उत्तरी गोलार्ध में गर्मी बढ़ने लगती है। जैसे जैसे IIC2 उत्तर की ओर खिसकता है. उत्तरी भारत में प्रवाहित होने ठाली पछुआ जेट धारा की दक्षिणी शाखा कमजोर पड़ने लगती है तथा अब वो हिमालय के उत्तर में चीन तथा तिब्बत से होकर प्रवाहित होने लगती है।
मार्च-अप्रैल माह में मौसम की क्रियाविधि
२२ मार्च के बाद सूर्य के उत्तरायण होने के साथ साथ पश्चिमोत्तर भारत गरम होने लगता है। जिसे भारतीय उपमहाद्वीप में मार्च एवं अप्रैल में पश्चिमोत्तर भारत में एक कम दबाव का क्षेत्र बन जाता है। इस निम्र दबाव के क्षेत्र को भरने के लिए उत्तर भारत में हवाएं चल पड़ती है क्योंकि ये निम्र दबाव का क्षेत्र अभी इतना शक्तिशाली नहीं है कि ये हिंद महासागर की आर्द्र हवाओं को आकर्षित कर सके अतः ये हवाए स्थलखंडों से आती जिनमें आर्द्रता की मात्रा काफी कम होती है जोकि वर्षा करने में असमर्थ होती है। इन हवाओं से धूल भरी आंधियाँ चलती हैं।
मई का मौसम
मई महीने के पहले सप्ताह में ITCZ भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिणी छोर पर प्रवेश कर जाता है। अब ITCZ धीरे-धीरे ऊपर उठता है और 21 जून को कर्क रेखा पर पहुँच जाता है। जब ITCZ 5 मई के आस पास भारतीय उपमहाद्वीप पर प्रवेश करता है तब इस निस दाब के क्षेत्र को भरने के लिए पवनें चलती है। समुद्र के पास होने कारण इन पवनों में वर्षा करने के लिए पर्याप्त आर्द्रता होती है तथा ये पवनें दक्षिण से कर्क रेखा तक ITCZ के साथ वर्षा करती चलती है। ये वर्षा वास्तविक मानसून नहीं है, बल्कि मानसून पर्व फुहार है। ये वर्षा मुख्यतः केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु में होती है। इसे अलग अलग राज्यों में अलग अलग नाम से जाना जाता है।
- केरल- आम वर्षा, फूलों वाली वर्षा
- कर्नाटक-कॉफी वर्षा, चेरी ब्लॉसम
मई माह के अंत में 20-25 मई तक जब ITCZ कर्क रेखा के आस पास पहुँचने लगता है तब पश्चिम बंगाल मौसमी हलचल का केन्द्र बन जाता है। इस समय में या तो यहां तेज धूल भरी आंधियां चलती है या यदि हवाओं में आर्द्रता की मात्रा अधिक होती है तो तेज धनझावटी वर्षा होती है। इस वर्षा को काल बैसाखी के नाम से भी जाना जाता है।
जून का मोसम
- हालांकि सूर्य की लम्बवत किरणें कर्क रेखा पर 21 जून को पहुँचती है परन्तु क्योंकि स्थलखण्ड, महासागरों की तुलना में जल्दी गरम हो जाता है अतः ITCZ 21 जून से पहले ही 1 जून तक पूर्वोत्तर भारत में स्वयं को स्थापित कर लेता है। इस निम्न दबाव के क्षेत्र को भरने के लिए उत्तर भारत में तेज, गरम और शुष्क हवाएं चल पड़ती है जिन्हें लू कहा जाता है। ये हवाएं मई के अंत या जून की शुरूआत में चलती है।
- 1 जून के आस-पास पश्चिमोत्तर भारत में उत्पन्न ITCZ काफी शक्तिशाली हो जाता है। अब ये इतना शक्तिशाली हो जाता है कि ये हिंद महासागर की आर्द्र हवाओं को आकर्षित कर लेता है। पे हवाएं भारत में दक्षिण-पश्चिम दिशा से प्रवेश करती है अतः इसे दक्षिण-पश्चिमी मानसून भी कहा जाता है। सबसे पहले पे भारत में प्रवेश करते ही पश्चिमी घाट से टकाराकर केरल के मालाबार तट पर 1 जून को वर्षा करता है। इसके बाद ये उत्तर में हिमालय तक तथा पश्चिम में दिल्ली तक तर्षा करता है।
दक्षिण-पश्चिम मानसून
21 मार्च को सूर्य ठिषुवत रेखा पर लम्बठत चमकता है। उसके बाद धीरे-धीरे उत्तरायण होने लगता है तथा 21 जून तक कर्क रेखा के ऊपर पहुंच जाता है। इसके साथ साथ ITCZ (Inter Tropical Conversion Zone, अंतः उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र) भी उत्तर की तरफ खिसकने लगता है, जिससे उत्तरी गोलार्ध में गर्मी बढ़ने लगती है।
- जून के पहले सप्ताह तक पश्चिमोत्तर भारत में विकसित ITCZ जब अत्यधिक शक्तिशाली होता है तब पे दक्षिणी गोलार्ध में से दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनों को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।
- फेरल के नियमानुसार जब ये व्यापारिक पठनें उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करती है तब अपने दाई तरफ मुड जाती है। तथा भारत में दक्षिण-पश्चिम दिशा से प्रवेश करती है।
- सबसे पहले दक्षिण पश्चिमी मानसून जून को केरल के मालाबार तट पर वर्षा करता है। तथा 15 जुलाई तक पूरा भारतीय उपमहाद्वीप इसके प्रभाव में आ जाता है। 15 सितंबर तक ये वर्षा इसी प्रकार चलती रहती है।
दक्षिण पश्चिमी मानसून भारत में 2 शाखाओं में प्रवेश करता है-
1. दक्षिण पश्चिम मानसून की अरब सागर शाखा।
2. दक्षिण पश्चिम मानसून की बंगाल की खाड़ी शाखा।
1. दक्षिण-पश्चिम मानसून की अरब सागर शाखा
- सबसे पहले केरल के मालाबार तट पर वर्षा होती है। इस शाखा से गुजरात से लेकर कन्याकुमारी तक पूरे पश्चिमी घाट पर वर्षा होती है।
- जब 1 जून को केरल के मालाबार तट पर वर्षा होती है तब इसे मानसून प्रस्फोट या मानसून विस्फोट कहा जाता है। 1 जून से 15 सितंबर तक पूरे पश्चिमी तट में 250 सी०मी० वर्षा होती
- भारत में दक्षिण-पश्चिमी मानसून द्वारा होने वाली वर्षा स्थलाकृति (ऊंचे पहाडों) द्वारा निर्धारित होती है। जब पवनें पहाड़ी से टकराकर ऊपर उठती है तब इन पवनों के तापमान में कमी आती है जिसे एडियाब्रेटिक ताप ह्रास कहा जाता है। तापमान में आयी कमी से आव्रता संघनित होकर जल बूंदों के रूप में वर्षा होती है। इसे पर्वतीय वर्षा भी कहा जाता
है। - अरब सागर शाखा से होने वाली वर्षा दक्षिण से उत्तर की ओर घटती चली जाती है, क्योकि दक्षिण की तरफ चोटियां अधिक ऊंची है। अतः पश्चिमी घाट के दक्षिणी भाग में अधिक वर्षा होती है।
- इसके पश्चात अरब सागर शाखा नर्मदा एवं तापी नदी की घाटी से प्रवाहित होते हुए अमरकंटक में वर्षा करती है। इसके बाद ये गुजरात में सैराष्ट्र वाले क्षेत्र में गिर और माण्डव पहाड़ियों से टकराकर वर्षा करती है जिसके कारण गुजरात का बाकी हिस्सा दृष्टि छापा क्षेत्र या वर्षा छापा क्षेत्र में आ जाता है, अतः अधिकतर भाग सूखा रह जाता है।
- इसके पश्चात ये राजस्थान में प्रवेश करती है तथा अरवाली श्रेणी की सबसे ऊँची चोटी गुरुशिखर से टकराकर माउण्ट आबू में पर्याप्त वर्षा करती है। पर ये पूरे अरावली श्रेणी पर वर्षा नहीं कर पाती क्योंकि अरावली श्रेणी का विस्तार इन पवनों की दिशा के समानांतर है। जिस कारण इन पवनों का इससे टकराव नहीं हो पाता।
2. दक्षिण-पश्चिम मानसून की बंगाल की खाड़ी शाखा
- बंगाल की खाड़ी शाखा भारत में दक्षिण-पूर्व दिशा से प्रवेश करने के कारण पूर्वी घाट के समानांतर प्रवाहित होती है जिस कारण ये पूर्वी घाट के पर्वतों से नहीं टकरा पाता है। अतः वहां वर्षा नहीं कर पाता है।
- बंगाल की खाड़ी शाखा पूर्वी घाट के समानांतर प्रवाहित होते हुए सबसे पहले शिलांग के पठार (मेघालय-पूर्वोत्तर भारत) से टकराती है तथा वहां खासी पहाड़ियों पर वर्षा करती है। यहीं पर मासनराम स्थित है यहां पर 1080 सी०मी० वर्षा होती है।
- इसके बाद बंगाल की खाड़ी शाखा असम की सूरमा घाटी में प्रवेश करती है तथा वहां ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी में प्रवेश करती है तथा यहां पर्याप्त वर्षा करती है। दक्षिण-पश्चिम मानसून की बंगाल की खाड़ी शाखा की एक शाखा पश्चिम बंगाल में प्रवेश करती है तथा वहां से ये कोलकाता से होते हुए उत्तर भारत के मैदान में प्रवेश करती है तथा पटना, इलाहाबाद, कानपुर होते हुए दिल्ली तक जाती है। ये शाखा से होने वाली वर्षा की मात्रा पूर्व से पश्चिम की तरफ पानी कोलकाता से दिल्ली की तरफ घटती है। दिल्ली से और पश्चिम की तरफ में ये शाखा वर्षा नहीं कर पाती।
- जब इस व०५० मानसून की शाखा की पठनें राजस्थान में प्रवेश करती है तब इन्हें अरावली पर्वत से टकराकर वर्षा करनी चाहिए परन्तु वर्षा नहीं हो पाती है। इसके दो प्रमुख कारण है
- पहां तक पहुँचते-पहुँचते पवनों में नमी की मात्रा काफी कम हो जाती है। राजस्थान ITCZ का क्षेत्र है जिस कारण यहां की भूमि काफी गरम होती है अतः जब पहने यहां पहुँचती है तब उनमे सापेक्षिक आव्रता बढ़ जाती है। जिस कारण उनके जल ग्रहण करने की क्षमता में वृद्धि हो जाती है।
- अतः राजस्थान में दक्षिण पश्चिम मानसून की न तो अरब सागर शाखा वर्षा कर पाती है और न ही बंगाल की खाड़ी शाखा। वास्तव में बंगाल की खाड़ी शाखा कुछ वर्षा करती है जोकि पवनों में नमी की मात्रा पर निर्भर करता है।
- दक्षिण-पश्चिम मानसून की बंगाल की खाड़ी मशाखा की पठने जब कोलकाता से उत्तर भारत के मैदान में जब प्रवेश करती है तब फेरल के नियम के अनुसार कोरियालिस बल के कारण ये पठनें अपने मार्ग से दाहिनी ओर मुड़ जाती है पानी हिमालय की शिवालिक श्रेणियों की तरफ। जिस कारण शिवालिक श्रेणियों की दक्षिणी ढालों पर अच्छी-खासी वर्षा प्राप्त होती है। इसी कारण से प्रायद्वीप भारत के पठार के उत्तरी भाग पर वर्षा प्राप्त नहीं हो पाती। इसी कारण से उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश में फैला हुआ बुंदेलखण्ड का क्षेत्र सूखा ग्रस्त क्षेत्र के अंतर्गत आता है
शीत ऋतु में होने वाली वर्षा
भारत में शीत ऋतु में होने वाली वर्षा 20 दिसंबर से लेकर मार्च तक होती है। शीत ऋतु में मानसून के दो क्षेत्र है पहला पश्चिमोत्तर भारत के पहाड़ी एवं मैदानी भाग तथा तमिलनाडु का कोरोमण्डल तट।
शीत ऋतु में वर्षा दो कारणों से होती है-
1. पश्चिमी विक्षोभ
2. उत्तर-पूर्वी मानसून
1. पश्चिमी विक्षोभ
- यह एक शीतोष्ण चक्रवात है।
- इस शीतोष्ण चक्रवात का जन्म भारत के पश्चिम में पूरोप में भूमध्य सागर में होता है।
- भूमध्य सागर के ऊपर जन्म लेने के पश्चात ये अपने पूर्व की तरफ चलता है तथा जब यह भारत में प्रवेश करता है तब इसे पश्चिमी विक्षोभ कहा जाता है।
- मुख्य रूप से पश्चिमोत्तर भारत में वर्षा करता है। पहाड़ी राज्यों में अर्थात (जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड) में हिमपात के रूप में तथा मैदानी राज्यों में अर्थात पंजाब हरियाणा तथा दिल्ली में जल बूंदों के रूप में होती है।
- आमतौर पर वर्षभर हिमालय के उत्तर में मध्य एशिया, तिब्बत एवं चीन में धरातल से 6-12 कि०मी० की ऊंचाई पर क्षोभमण्डल सीमा के पास पश्चिम से पूर्व की तरफ चलने वाली वायु धाराओं को जेट धाराए या जेट प्रवाह कहते है। क्योंकि ये पश्चिमी से पर्व दिशा में बहती है अतः इन्हें पछुआ जेट धारा भी कहा जाता है।
- जब शीत ऋतु में सूर्य दक्षिणायन होकर मकर रेखा पर चला जाता है तब ये जेट धाराए भी अपने मार्ग से कुछ दक्षिण में आकर प्रवाहित होने लगती है। दक्षिण में आते ही हिमालय इसके मार्ग में अवरुद्ध उत्पन्न करता है तथा ये पछुआ जेट धारा दो शाखाओं में बट जाती है। पछुआ
- जेट धारा की उत्तरी शाखा ।
- पछुआ जेट धारा की दक्षिणी शाखा ।
- पछुआ जेट धारा की दक्षिणी शाखा हिमालय के दक्षिण में उत्तर भारत के मैदानों के ऊपर पश्चिम से पूर्व की तरफ प्रवाहित होने लगती है। वास्तव में पछुआ जेट धारा की यही शाखा शीत ऋतु में उत्तर भारत के मैदान पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालली है।
- पछुआ जेट धारा ही पश्चिमी विक्षोभ को भारत में लाती है। पश्चिमी विक्षोभ भूमध्य सागर के ऊपर जन्म लेता है तथा काला सागर एवं कैस्पियन सागर से नमी ग्रहण करता है।
- पश्चिमी विक्षोभ से शीत ऋतु में होने वाली वर्षा पश्चिमी भारत से पूर्वी भारत की तरफ कम होती जाती है। परन्तु अगर पश्चिमी विक्षोभ में आव्रता की मात्रा अधिक है तो यह पश्चिमी बिहार तक वर्षा करती है।
- पश्चिमी विक्षोभ से होने वाली वर्षा पहाड़ी राज्यों में सेब की फसल के लिए तथा मैदानी राज्यों में रबी की फसल के लिए लाभदायक होती है।
- पश्चिमी विक्षोभ से हिमालय की उन चोटियों पर हिमपात होता है जोकि हिमरेखा से ऊपर पानी 4400 मी० से अधिक ऊंचाई पर है। हिमरेखा पर तापमान ०°C होता है।
2. शीत ऋतु में उत्तर-पूर्वी मानसून
- विषुवत रेखा पर सालभर सूर्य की किरणें लम्बवत पड़ती है। जिस कारण पहां पर निम्म्र वायुदाब बना रहता है।
- इस निश्न वायुदाब के क्षेत्र को विषुवतरेखीय निम्न दाब का क्षेत्र भी कहा जाता है। इस निस्र वायुदाब के क्षेत्र को भरने के लिए 35° उत्तरी तथा 35° दक्षिणी अक्षांश से व्यापारिक पवनें प्रवाहित होने लगती है।
- ये व्यापारिक पवनें सीधे विषुवत रेखा की तरफ न प्रवाहित होकर कुछ पश्चिम में प्रवाहित होती है। ऐसा फेरल के नियम के अनुसार कोरिपालिस बल के कारण होता है। जिस कारण उत्तरी गोलार्ध में पवनें अपने दाई ओर तथा दक्षिणी गोलार्ध में अपने बाई ओर विबलित हो जाती है।
- इस कारण उत्तरी गोलार्ध में इन व्यापारिक पवनों की दिशा उत्तर-पर्व से दक्षिण-पश्चिम हो जाती है तथा दक्षिणी गोलार्थ में दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम हो जाती है।
- शीत ऋतु में जब सूर्य दक्षिणायन होता है तब ITCZ भी मकर रेखा की तरफ विस्थापित हो जाता है तथा इस कारण से भारत पूरी तरह से उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनों के अधीन हो जाता है।
- उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनें स्थल खण्ड़ो के ऊपर से प्रवाहित होकर आती है। जिस कारण इनमें नमी का अभाव होता है और ये पूरे भारत वर्ष में वर्षा नहीं कर पाती है। परन्तु इन व्यापारिक पवनों का वह भाग जो बंगाल की खाड़ी के ऊपर से प्रवाहित होता है वहां से पर्याप्त आव्रता ग्रहण कर लेता है तथा तमिलनाडु में पश्चिमी घाट से टकराकर कोरामण्डल तट पर पर्याप्त वर्षा करता है।
मानसून का निवर्तन (लौटता मानसून)
- 21 जून को सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लम्बवत पड़ती हैं। 22 जून से सूर्य दक्षिणायन होना प्रारम्भ कर देता है। 23 सितंबर को सूर्य ठापस विषुवत रेखा के ठीक ऊपर चमकता है। तथा 22 दिसंबर को सूर्य की लम्बवत किरणें मकर रेखा के ऊपर पड़ती हैं।
- इसके परिणाम स्वरूप पश्चिमोत्तर भारत में बना ITCZ का क्षेत्र भी विषुवत रेखा की तरफ खिसकने लगता है। जिसके कारण मानसून भी दक्षिण की तरफ खिसकने लगता है। यह प्रक्रिया मानसून का निवर्तन (लौटना) कहलाती है। ये प्रक्रिया: सितंबर से प्रारम्भ होकर 15 अक्टूबर तक चलती है तथा दक्षिण-पश्चिमी मानसून भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर हो जाता है। सबसे पहले मानसून का निवर्तन राजस्थान से शुरू होता है।
- मानसून के निवर्तन काल में सबसे अधिक वर्षा पूर्वी तटीप मैदान में होती है। इसका समय काल 15 अक्तूबर से 15 नवम्बर तक होता है। वापस लौटते मानसून से होने वाली वर्षा के हो प्रमुख कारण हैं।
- क्योंकि स्थलखण्ड जल से पहले गर्म हो जाता है अतः ITCZ भारत के पश्चिमोत्तर भाग में विषुवत रेखा क्षेत्र से पहले ही स्थापित होता है परन्तु इस समय तक (मानसून के निवर्त काल सितंबर एवं अक्तूबर) तक बंगाल की खाड़ी भी पर्याप्त गरम हो जाती है जिस कारण ये लौटता मानसून यहां से पर्याप्त नमी ग्रहण कर पाता है। इसके साथ ही यहां पर इसी समय उत्तर-पूर्वी मानसून भी प्रवाहित होने लगता है। अतः दक्षिण-पश्चिमी मानसून की बंगाल की खाड़ी शाखा का लौटता मानसून, उत्तर-पूर्वी मानसून के साथ मिलकर दक्षिण-पश्चिम दिशा की तरफ प्रवाहित होने लगता है। यहीं कारण है कि मानसून के निवर्तन काल में पूर्वी तटीय मैदान में वर्षा होती है।
- अक्टूबर तक आते-आते बंगाल की खाड़ी पर्याप्त गरम हो जाती है तथा बंगाल की खाड़ी की ऊष्ण सतह उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति के लिए आदर्श दशाए उपलब्ध कराती है। ये चक्रवात पूर्व से पश्चिम दिशा में भ्रमण करते है तथा पूर्वी घाट से टकराकर यहां वर्षा करता है।
वृष्टि छाया क्षेत्र
जब आर्द्र पवने पहाड़ी से टकराकर ऊपर उठने लगती है तब उसके तापमान में कमी आने लगती है जिसे एडियाबेटिक ताप हास कहा जाता है जिससे आई हवाएं संघनित होकर जल बूंदों के रूप में गिरने लगती है। इसके विपरीत जब पहले पहाड़ी की दूसरी तरफ से ढाल के साथ नीचे उत्तरती है तब इन पठनों से वर्षा नहीं होती है जिसके दो प्रमुख कारण हैं-
- इन पवनों में आर्द्रता की मात्रा कम हो जाती है।
- जब ये पवने पहाड़ की दूसरी ढाल से नीचे उतरती हैं तब इनके तापमान में वृद्धि होने लगती है जिसे एडियाबेटिक ताप वृद्धि कहते है जिस कारण इन पवनों की आर्द्रता ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है।
- पर्वतों के सामने वाली काल जिससे पवनें सबसे पहले टकराती हैं को पठन सम्मुख डाल कहा जाता है। इसी ढ़ाल पर एडियाबेटिक ताप हास के चलते वर्षा होती है।
- पर्वतों के पीछे वाली दाल जिससे पवनें बाद में उतरती हैं को पवन विमुख ढाल कहा जाता है। ये वाला क्षेत्र वृष्टि छापा प्रदेश कहलाता है।
- तेलंगाना, विदर्भ (महाराष्ट्र) एवं उत्तरी कर्नाटक वाला क्षेत्र वृष्टि छाया क्षेत्र। यहां पर कटीली मोटी झाड़ियाँ पायी जाती है। इसी कारण से गुजरात में भी दक्षिण-पश्चिमी मानसून से वर्षा नहीं हो पाती है। क्योंकि गुजरात का क्षेत्र गिर एवं माण्डव पहाड़ियों की वृष्टि छाया क्षेत्र में आता है।
ITCZ (Intertropical Conversion Zone) (अंतर उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र)
विषुवत रेखा पर साल भर तापमान अधिक रहता है जिस कारण यहां पर पवनें गर्म होकर ऊपर उठती है जिससे ठिषुवत रेखा पर एक निम्न दाब का क्षेत्र बन जाता है। इस निम्र दाब के क्षेत्र को भरने के लिए उत्तरी तथा दक्षिणी गोलार्ध से व्यापारिक पवनें यहां पर आती है तथा टकराकर ऊपर उठ जाती है। अतः विषुवत रेखा के पास स्थित इस उच्च ताप की पेटी/क्षेत्र या निस्र वायु दाब की पेटी/क्षेत्र को ITCZ (अंतः उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र) कहा जाता है। पे क्षेत्र (ITCZ) कर्क तथा मकर रेखा के मध्य सूर्य की स्थिति के अनुसार विचरण करता रहता है। ग्रीष्म ऋतु में ITCZ उत्तरी गोलार्ध में कर्क रेखा के पास तथा शीत ऋतु में जब सूर्य दक्षिणायन होता है