उपलब्धसंसाधन संकेत करते हैं कि Dakshin Bharat, मुख्यत: तमिलनाडु एवं केरल में प्रथम सहस्त्राब्दी में महापाषाणयुगीन लोग रहते थे।
दक्षिण भारत की महापाषाणयुगीन संस्कृति मुख्यतः अपनी शवाधान प्रथा के लिए जानी जाती है।
इन शवाधानों का बड़े पत्थरों से कोई संबंध न होते हुए भी इन्हें महापाषाण (Megalith) कहा जाता है।
दक्षिण भारत के आरंभिक इतिहास में तीन राजवंशों चोल, चेर एवं पांड्य का उल्लेख मिलता है।
प्रारंभिक–मध्ययुगीन काल में यह क्षेत्र चोलमंडलम् कहलाया।
आरंभ में चोल राज्य की राजधानी उरैयुर (तिरुचिरापल्ली) में स्थित थी। बाद में चोल राज्य की राजधानी को पुहार में स्थानांतरित कर दिया गया।
पुहार कालांतर में कावेरीपट्टम के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
चोल वंश में प्राचीन काल में सर्वाधिक प्रतापी राजा करिक्काल हुआ। उसके पास एक शक्तिशाली नौसेना थी।
करिक्काल के नाम पर इतिहास में दो महान उपलब्धियाँ दर्ज हैं उसने चेर एवं पांड्य राजाओं की सम्मिलित सेना को परास्त किया और उसने पड़ोसी देश श्रीलंका पर आक्रमण किया एवं उन्हें परास्त किया।
करिक्काल के निधन के बाद चोलवंश पतनोन्मुख हो गया एवं 9वीं शताब्दी ई० तक महज एक छोटे राजवंश के रूप में अस्तित्व में रहा।
पांड्यराज्यमुख्य रूप से तमिलनाडु के तिरुनेवेली, रामनद एवं मदुरै के आधुनिक जिलों में विस्तृत था।
पांड्य राज्य की राजधानी मदुरै में थी। पांड्य राजवंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक दुनजेरियन था।
उसने चोल एवं चेर की संयुक्त सेना को मदुरै में हराया।
अनुमानित है कि नेदुनजेरियन का शासन 210 ई० के इर्द-गिर्द था।
नेदुनजेरियन के शासनकाल में मदुरै एवं कोरकै व्यापार एवं वाणिज्य के बड़े केंद्र थे।
चेरवंश का राज्य पांड्यों के राज्य के पश्चिम एवं उत्तर में स्थित था।
चेरों को केरलपुत्र भी कहा गया है।
चेर परंपरा के अनुसार उनका सबसे महान शासक सेनगुटुवन था।
उसने चोल एवं पांड्य शासकों को अपने अधीन किया था।
पल्लव वंश (Pallav Dynesty)
पल्लवों का इतिहास आध्र-सातवाहन के पतनावशेषों पर आरंभ होता है।
कृष्णानदी के दक्षिण के प्रदेश पर पल्लवों ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली।
पल्लव राजाओं के प्राकृत एवं संस्कृत में अनेक दानपत्र उपलब्ध हुए हैं।
पल्लव शक्ति का वास्तविक संस्थापक सिंह विष्णु (575–600ई०लगभग) था।
सिंह विष्णु वैष्णव धर्म का अनुयायी था। |
पल्लव वंश के प्रमुख शासक सिंह विष्णु की राजधानी कांचीपूरम् थी।
किरातार्जुनीयम् के रचनाकार भारवि सिंह विष्णु के दरबारी थे।
पल्लव वंश का अंतिम शासक अपराजित (879-897 ई०) था।
नरसिंह वर्मन-I ने महाबलिपुरम् के एकाश्मक स्थ का निर्माण कराया।
नरसिंह वर्मन-I ने वातापिकोंडा की उपाधि धारण की।
मतविलास प्रहसन की रचना पल्लव राजा महेन्द्रवर्मन-I ने की।
महेन्द्र वर्मन-I
606 ई० से 630 ई० तक
नरसिंह वर्मन-I
630 ई० से 668 ई० तक
महेन्द्र वर्मन-II
668 ई० से 670 ई० तक
परमेश्वर वर्मन-I
670 ई० से 695 ई० तक
नरसिंह वर्मन-II
695 ई० से 722 ई० तक
नंदि वर्मन-II
731 ई० से 795 ई० तक
दंपत वर्मन-I
795 ई० से 844 ई० तक
काँची के कैलाशनाथ मंदिर का निर्माण नरसिंह वर्मन-II ने करवाया।
नरसिंह वर्मन-I के दरबार में दशकुमारचरितम् नामक प्रसिद्ध रचना का रचनाकार दंडी रहता था।
नंदिवर्मन ने काँची के मुक्तेश्वर मंदिर एवं बैकुंठ पेरूमाल का निर्माण कराया।
प्रसिद्ध वैष्णव संत तिरूमङग अलवर नंदिवर्मन के समकालीन थे।
पल्लव कला का भारतीय इतिहास में विशेष योगदान है
पल्लव नरेश महेंद्र वर्मन-I द्वारा अपनाई गई गुहा शैली के दर्शन एकाम्बरनाथ एवं सित्तनवासल मंदिरों में होते हैं।
माम्मलपुरम के 5 मंदिर नरसिंह वर्मन-1 द्वारा अपनाई गई माम्मल शैली के हैं।
कैलाशनाथ मंदिर (काँची) का निर्माण राजसिंह शैली में हुई।
राष्ट्रकूट वंश (RashtrakutDynasty)
राष्ट्रकूटवंश की स्थापना दन्तिदुर्गा ने 752 ई० में की।
राष्ट्रकूट वंश की राजधानी शोलापुर के निकट म्यान्खेड (मालाखेड) में थी।
ऐलोरा के प्रसिद्ध गुहा मंदिर (कैलाश मंदिर) का निर्माण इस वंश के कृष्णा-I ने करवाया।
कन्नड़ भाषा के प्रसिद्ध ग्रंथ कविराजमार्ग का रचनाकार राष्ट्रकूट सम्राट अमोघवर्ष ‘जैन धर्म’ का अनुयायी था।
आदिपुराण के रचयिता जिनसेन, गणितसार संग्रह के रचयिता महावीराचार्य तथा अमोघवृत्ति के लेखक सक्तायन अमोघवर्ष के दरबारी थे !
अमोघवर्ष ने अपने जीवन का अंत तुंगभद्रा नदी में जल समाधि लेकर किया।
ऐलोरा की गुफाएँ
ऐलोरा में 34 शैलचित्र गफाएँ हैं जिनका निर्माण राष्ट्रकूट शासकों ने किया
इसमें 1 से 12 तक बौद्धों की गुफा है।
गुफा संख्या 13 से 29 हिंदुओं से संबंधित है।
गुफा संख्या 30 से 34 जैनियों से संबंधित है।
अरब निवासी अल मसूदी भारत की यात्रा पर राष्ट्रकूट सम्राट इंद्र-III के शासन काल में आया।
अल मसूदी ने तत्कालीन राष्ट्रकूट सम्राट को भारत के शासकों में सर्वश्रेष्ठ बताया।
कल्याणी के चालुक्य नरेश तैलप-II ने कर्क को 973 ई० में हराकर इस वंश के शासन का अंत कर दिया।
चालुक्य वंश (CHALUKYADYNASTY)
दक्षिण भारत में छठी’ से ‘8वीं शताब्दी तथा 10वीं से 12वीं शताब्दी तक चालुक्य वंश सबसे शक्तिशाली वंश था।
चालुक्यों की उत्पत्ति के संबंध कोई ठोस जानकारी नहीं है। उन्हें कन्नड़ क्षत्रिय माना जाता है।
चालुक्यों की तीन शाखाएँ थीं-बादामी के चालुक्य, कल्याणी के चालुक्य एवं वेंगी के चालुक्य।
बादामी के चालुक्य (Chalukyas of Badami)
बादामी के चालुक्य वातापी के चालुक्य भी कहलाते हैं।
इस वंश का संस्थापक जयसिंह था।
बादामी के चालुक्यों को ‘पूर्वकालीन’ पश्चिमी चालुक्य (Early Western Chalukyas) भी कहते हैं।
बादामी के चालुक्यों ने लगभग 200 वर्षों (6ठी’ शताब्दी के मध्य से 8वीं शताब्दी के मध्य तक) तक दक्षिणापथ के एक विस्तृत साम्राज्य पर राज किया।
पुलकेशिन-I इस वंश का प्रथम महत्वपूर्ण राजा हुआ, उसने 535 से 566 ई० के बीच कई यज्ञ किये।
पुलकेशिन-I के काल में बादामी चालुक्यों की राजधानी बनी।
इस वंश के सबसे प्रतापी राजा पुलकेशिन-IIने सम्राट हर्षवर्द्धन को हराकर परमेश्वर की उपाधि धारण की।
जिनेन्द्र के मेगुती मंदिर का निर्माण पुलकेशन-II ने करवाया।
अजंता की एक गुफा में फारसी-दूतमंडल का स्वागत करते हुए जिस शासक का चित्र उत्कीर्ण है वह पुलकेशिन-II है। ।
इस वंश के शासक विक्रमादित्य-II की पत्नी लोकमहादेवी ने पट्टदकल में विरुपाbक्षमहादे मंदिर का निर्माण करवाया।
कल्याणी के चालुक्य (Chalukyas of Kalyani)
इस वंश की स्थापना तैलप-II द्वारा की गई। उसने म्यानखेड को अपनी राजधानी बनाया।
राष्ट्रकूटों की शक्ति का उन्मूलन कर, चालुक्यों की शक्ति को पुनर्जीवित करने का श्रेय कल्याणी के चालुक्यों को है।
कल्याणी इनकी राजधानी थी।
कल्याणी के चालुक्यों का संबंध बादामी के चालुक्यों से नहीं था।
चालुक्यों की इस शाखा को ‘उत्तर-कालीन पश्चिमी चालुक्य (Later Western Chalukyas)’ भी कहा जाता है।
विक्रमादित्य-IV इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था।
विक्रमादित्य-VI के दरबार को विल्हण एवं विज्ञानेश्वर जैसे साहित्यकार सुशोभित करते थे।
हिंदू विधि ग्रंथ मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य स्मृति पर टीका) की रचना विज्ञानेश्वर द्वारा हुई।
विक्रमादित्य-VI के जीवन पर प्रकाश डालने वाले ग्रंथ विक्रमांकदेव चरित् की रचना ‘विल्हण’ ने की।
इस वंश का अंतिम शासक सोमेश्वर-IV था। उसे देवगिरि के ‘यादव राजा’ होयसल नरेश वीर वल्लाल ने 1190 ई० में हरा दिया तथा यह वंश समाप्त हो गया।
वेंगी के चालुक्य (Chalukyas of Vengi)
वेंगी के चालुक्यों को पूर्वी चालुक्य (Eastern Chalukyas)’ भी कहा जाता है।
वेंगी के चालुक्य वंश की स्थापना विष्णुवर्द्धन ने 615 ई० में की।
इस वंश के शासकों की राजधानियाँ क्रमशः पिष्टपुर, वेंगी एवं राजमुंदरी थी।
विजयादित्य-III इस वंश का सबसे प्रतापी राजा हुआ। पंडरंग उसका सेनापति था।
यादव वंश (Yadav Dynasty)
यादव लोग स्वयं को कृष्ण का वंशज (यदुवंशी) कहते थे। वे चालुक्यों के सामंत थे।
भिल्लभ-IV (यादव वंश) ने सोमेश्वर चालुक्य को परास्त कर कृष्णा नदी के उत्तर में संपूर्ण चालुक्य राज्य पर अधिकार कर लिया तथा देवगिरि (दौलताबाद) को अपनी राजधानी बनाया।
यादव वंश में सर्वाधिक प्रतापी राजा सिंहण (1210-47 ई०) हुआ।
सिंहण की सभा में संगीत रत्नाकर के लेखक सारंधर एवं प्रसिद्ध ज्योतिष चंगदेव रहता था।
टिक्कम द्वारा मलिक काफूर (अलाउद्दीन खिलजी का सैनिक जनरल) के समक्ष आत्मसमर्पण करने के साथ इस राजवंश का पतन हो गया।
काकतीय वंश (Kaktiya Dynasty)
काकतीय वंश की स्थापना बीटा-I ने नलगोंडा (हैदराबाद) में एक छोटे से राज्य के रूप में की।
इस राज्य की राजधानी अमकोण्ड थी।
काकतीय वंश में सर्वाधिक शक्तिशाली शासक गणपति था।
गणपति की पुत्री रुद्रमा ने रुद्रदेव महाराज के नाम से 35 वर्षों तक शासन किया।
गणपति द्वारा इस राज्य की राजधानी वारंगल स्थानांतरित कर दी गई।
प्रताप रुद्र (1295-1323 ई०) इस वंश का अंतिम शासक था।
कोंकण के शिलाहार (Silahars of Konkan)
शिलाहारों का राजकुल संभवतः क्षत्रिय था एवं उनकी तीन शाखाएँ थी।
इनकी प्राचीनतम शाखा ने 8वीं शताब्दी ई० से 11वीं शताब्दी के आरंभ तक शासन किया।
उपरोक्त शाखा की राजधानी गोआ थी।
शिलाहारों की दूसरी शाखा ने लगभग साढ़े चार सदियों तक उत्तरी-कोंकण पर राज किया।
दूसरी शाखा का शासन क्षेत्र थाना एवं रत्नागिरि के जिले तथा सूरत के कुछ हिस्सों में फैला हुआ था।
इस राजवंश की तीसरी शाखा 11वीं शताब्दी में कोल्हापुर में प्रतिष्ठित हुई।
सतारा एवं बेलगाँव जिलों पर भी इनका शासन था।
इस वंश का प्रतापी राजा विजयादित्य ने बिज्जल को अंतिम चालुक्य नरेश नृपति के विरुद्ध सहायता प्रदान की।
इस कुल का सबसे प्रतापी राजा भोज था। उसने संभवतः 1175 ई० से 1210 ई० तक शासन किया।
भोज के बाद यादव शासक सिंहण ने शिलाहारों का राज्य यादव राज्य में मिला लिया।
होयसल वंश (Hoyshal Dynasty)
होयसल वंश का ’12वीं शताब्दी में मैसूर में प्रादुर्भाव हुआ।
होयसल वंशीय स्वयं को चंद्रवंशी क्षत्रिय कहते थे।
इस वंश का संस्थापक विष्णु वर्मन था।
इस वंश के शासक विष्णुवर्मन-II ने द्वारसमुद्र नामक नगर की स्थापना की तथा इसे अपनी राजधानी बनाया।
विष्णु वर्मन ने वेलूर स्थित चेन्ना केशव मंदिर का निर्माण 1117 ई० में किया।
इस वंश का अंतिम शासक बीर बल्लाल-III था जिसे उलाउद्दीन खिलजी के एक सैनिक जनरल मलिक काफूर ने परास्त कर दिया।
इस काल का सर्वश्रेष्ठ मंदिर द्वार-समुद्र का होयसलेश्वर मंदिर है।
उपरोक्त मंदिर को भास्कर-कला का अजायबघर भी कहा जाता है।
कदंब वंश (Kadamb Dynasty)
कदंब वंश की स्थापना आंध्र-सातवाहन के पतनावशेष पर हुई। ये पल्लवों के सामंत थे।
इस वंश का मूल निवास स्थान पश्चिमी घाट में कनारा में था।
तेलगुंडा के एक लेख से ज्ञात होता है कि मयूर शर्मन नामक एक ब्राह्मण ने स्वतंत्र कदंब वशीय राज्य की स्थापना की।
इस राज्य की राजधानी वनवासी थी।
इस वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक काकुतस्थ वर्मन था।
13वीं शताब्दी के समाप्ति के समय में अलाउद्दीन खिलजी ने इस राज्य को मुस्लिम राज्य में मिला लिया।
गंग वंश (Ganga Dynasty)
गंगों का राज्य मैसूर रियासत के अधिकतर भाग पर फैला हुआ था।
गंगों के कारण उपरोक्त इलाके को गंगावाड़ी कहा जाता था।
चौथी शताब्दी ई० में इसकी नींव,दिदिग एवं माधव-I ने डाली।
माधव-I ने दत्तक सूत्र पर एक टीका लिखी।
पहले इनकी राजधानी कुलुवल में थी, परंतु ‘5वीं शताब्दी में इस वंश के शासक हरिवर्मन ने इसे वहाँ से स्थानांतरित कर मैसूर जिले में तलकाड में स्थापित किया।
राष्ट्रकूटों ने कालांतर में इस राज्य पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित कर दी।
संगम युग
संगम शब्द का अर्थ है संघ, परिषद, गोष्ठी तथा इससे तात्पर्य तमिल कवियों के सम्मेलन से है ! इन परिषदों का संघठन पाण्ड्य राजाओं के संरक्षण में किया गया था !
भारतीय प्रायद्वीप का दक्षिणी छोर जो कृष्णा नदी के दक्षिण में है, तीन राज्यों में बंटा हुआ था – चोल, चेर और पाण्ड्य !
अशोक के द्वितीय शिलालेख में चोल, पाण्ड्य, केरलपुटरा एवं सतीयपुत्र का जिक्र मिलता है, जो कि साम्राज्य की सीमा पर बसते थे !
संगम
अध्यक्ष
संरक्षक एवं संख्या
स्थान
सदस्यों की संख्या
प्रथम
अगस्त्य ऋषि
पाण्ड्य (89)
मदुरै
549
द्वितीय
तोलकाप्पियर
पाण्ड्य (59)
कपटपुरम
49
तृतीय
नक्कीरर
पाण्ड्य (49)
उत्तरी मदुरै
49
आठवीं सदी ई. में तीन संगमों का वर्णन मिलता है।
पाण्ड्य राजाओं द्वारा इन संगमों को शाही संरक्षण प्रदान किया गया।
तमिल किंवदन्तियों के अनुसार, प्राचीन दक्षिण भारत में तीन संगमों (तमिल कवियों का समागम) का आयोजन किया गया था, जिसे ‘मुच्चंगम’ कहा जाता था।
तीन संगम ये थे- प्रमुख संगम, मध्य संगम और अंतिम संगम ।
इतिहासकार तीसरे संगम काल को ही ‘संगम काल’ कहते हैं और पहले दो संगमों को ‘पौराणिक’ मानते हैं।
माना जाता है कि प्रथम संगम मदुरै में आयोजित किया गया था। इस संगम में देवता और महान संत सम्मिलित हुए थे। किन्तु इस संगम का कोई साहित्यिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है।
द्वितीय संगम कपाटपुरम् में आयोजित किया गया था, और इस संगम का ‘तोलकाप्पियम्’ नामक एकमात्र ग्रंथ उपलब्ध है जो तमिल व्याकरण ग्रन्थ है।
तृतीय संगम भी मदुरै में हुआ था। इस संगम के अधिकांश ग्रंथ नष्ट हो गए थे। इनमें से कुछ सामग्री समूह ग्रंथों या महाकाव्यों के रूप में उपलब्ध है।
चोल वंश (CholaDynasty)
चोलों का क्रमबद्ध इतिहास नौंवीं शताब्दी से प्रारंभ होता है।
इसी काल में विजयालय ने पल्लवों के ध्वंसावशेष पर चोल राज्य की स्थापना की।
तब से 13वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में इस वंश का प्रभुत्व रहा। ।
चोल साम्राज्य की राजधानी तंजावुर (तंजौर) थी।
आदित्य-I ने चोलों का स्वतंत्र राज्य स्थापित किया।
चोलवंश के प्रमुख शासक
विजयालय
850 से 880 ई०
आदित्य 1
880 से 907 ई०
परान्तक I
907 से 955 ई०
राजाराज I
985 से 1014 ई०
राजेन्द्र 1
1012 से 1042 ई०
राजाधिराज I
1042 से 1052 ई०
कुलोतुंग 1
1070 से 1118 ई०
विक्रम चोल I
1120 से 1135 ई०
कुलोतुंग II
1135 से 1150 ई०
राजाराज II
1150 से 1173 ई०
चोल नरेश परान्तक-I को तक्कोलम के युद्ध में राष्ट्रकूट नरेश कृष्णा -III ने पराजित किया।
चोल राजा राजाराज-ने श्रीलंका के कुछ प्रदेशों को, जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया तथा उसका, नाम मुम्ड़िचोलमंड्लम रखा तथा पोलनरुवा को, इसकी राजधानी बनाया।
राजाराज- शैव धर्म का अनुयायी था तथा उसने तंजौर में राजराजेश्वर का शिव मंदिर बनवाया। इसे, बृहदेश्वर मंदिर भी कहते हैं।
चोल साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार राजेन्द्र चोल-I के काल में हआ।
राजेन्द्र-ने बंगाल के पालवंशीय शासक महिपाल को पराजित करने के बाद गंगैकोंडाचोल की उपाधि धारण की।
राजेन्द्र चोल ने नवीन राजधानी गंगैकोंडचोलपुरम् के निकट चोलगंगम नामक विशाल तालाब का निर्माण कराया।
चोल वंश का अंतिम राजा राजेन्द्र-III था।
इस वंश के शासक विक्रम चोल ने अभाव एवं अकालग्रस्त जनता से चिदम्बरम मंदिर के विस्तार हेतु कर वसूले।
इस वंश के कुलोतुंग-II द्वारा चिदंबरम् मंदिर में स्थित गोविन्दराज (विष्णु) की मूर्ति समुद्र में फेंकवा दी गई।
बाद में वैष्णव आचार्य रामानुज ने उपर्युक्त मूर्ति का पुनरुद्धार कर उसे तिरुपति मंदिर में प्रतिष्ठापित करवाया।
अधिकतर चोल शासक शैव धर्म के उपासक थे परंतु वैष्णव धर्म बौद्ध धर्म तथा जैन धर्मों का भी सम्मानजनक स्थान था।
प्रसिद्ध तमिल महाकाव्य जीवक चिंतामणि की रचना चोल काल में ही 10वीं शताब्दी में हुई। इसके प्रणेता तिरुत्क्क देवर नामक जैन पंडित थे।
एक अन्य जैन लेखक तोलोमोक्ति ने शूलमणि नामक ग्रंथ की रचना की।
चोल शासक कुलोतुंग-III के शासन काल में प्रसिद्ध कवि कंबन हुए, जिन्होंने प्रसिद्ध तमिल रामायण रामावतारम् की रचना की।
11वीं शताब्दी में विख्यात बौद्ध विद्वान बुद्धमित्र ने रसोलियम नामक व्याकरण ग्रंथ की रचना की।
काव्य के क्षेत्र में पुगलेन्दि का नाम नहीं भुलाया जा सकता, उन्होंने नलवेम्ब नामक महान काव्य की रचना की।
चोल प्रशासन (CHOLA ADMINISTRATION]
राजा को परामर्श देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् थी परंतु, राजा मंत्रिपरिषद की सलाह मानने को बाध्य नहीं था।
चोल काल में साम्राज्य को 6 प्रांतों में बाँटा गया था।
चोलकालीन प्रांतों को मंडलम् कहा जाता था जिसका प्रशासक वायसराय होता था।
मंडलम को कई कोट्टम (कमिश्नरियाँ) में तथा कोट्टमों को कई बलनाडु (जिलों) में बाँटा गया था।
चोल कालीन ग्राम समूह नाडु कहलाते थे, एवं यही चोल प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी।
‘नाडु’ की स्थानीय सभा को नाटूर एवं नगर की स्थानीय सभा को नगरतार कहा जाता था।
चोल साम्राज्य में भूमि-कर कुल उपज का ⅓ भाग हुआ करता था।
चोलों के पास एक शक्तिशाली जल सेना थी।
स्थानीय स्वशासन
स्थानीय स्वशासन चोल शासन प्रणाली की महत्वपूर्ण विशेषता थी। स्थानीय स्वशासन की इकाईयों के सदस्य वयस्क होते थे
उर
सर्वसाधारण लोगों की सभा सार्वजनिक कल्याण के लिए तालाबों एवं बागीचों के निर्माण हेतु गाँव की भूमि का अधिग्रहण करना ‘उर’ का प्रमुख कार्य था।